अजीब इत्तेफाक

बात उन दिनों की है जब मैं कॉलेज में पढ़ता था ।उस समय परीक्षा देने में देरी हो रही थी ,मैंने झूठ का सहारा लेकर परीक्षा तो दे दिया किंतु रिजल्ट फैल का आया ।

     बात यूं हुई थी कि मैं जिस रिक्शे पर बैठकर कॉलेज परीक्षा देने गया था ,रिक्शेवाले की परवाह न करते हुए तेजी से उतर कर भागा सामने कॉलेज का गेट बंद कर रहे चौकीदार को रोककर अंदर दाखिल हुआ । रिक्शा वाले को इशारा कर , कालेज के मेन गेट के अंदर से इसारे से  बतलाया कि पैसे बाद में ले लेना । जबकि सच तो यह था कि उस समय मेरे पास कोई पैसे नहीं थे। बाद में कई दिनों तक उस रिक्शेवाले को ढूंढा भी किंतु वह नहीं मिला । पैसे ना उस समय थे और ढूंढते  समय थे । बाद में कई दिनों तक उस रिश्ते वाले को ढूंढा फिर भी वह नहीं मिला, शायद इसी वजह से वह मिल भी नहीं पा रहा था । मैं उस कालेज के सामने से जब भी गुजरता हूं मुझे यह किस्सा जयाद आ जाता है । मेरा यह कर्ज कभी ना उतारने वाला बनकर रह गया और एक गरीब मेहनतकश इंसान का ऋणी बन गया,अथवा नहीं ? क्योंकि जब जब उसके बारे में पैसे देने के बारे में सोचता हूं तब तब मेरे पास अपनी जेब में एक रूपये भी नहीं होते है  ।इस पहेली को  मैं आज का तक समझ नहीं पाया ? सबसे बड़ी बात यह है और क्या हो सकती है , जब यह कहानी याद करके लिख रहा हूं उस समय मैं भी मेरे पास एक रूपये तक नहीं है । इस अजीब इत्तेफाक को क्या नाम दें  ? मैं स्वयं आज तक समझ नहीं पाया या मेरा कर्ज है अथवा उसका ?  यही एक कहानी  है जिसकी आज तक नहीं सुलझ पाई है  ?और शायद ही सुलझ पाएगी ।यह पहेली आज तक सुलझा नही पा  रहा हूं । यह एक अजीब इत्तेफाक मेरे जीवन का है जिसे मै जानकर भी नही भूल पाता हूँ किंतु यह भी सत्य है कि इस कहानी को जब पढ़ता हूं, अथवा जो भी इस कहानी को जब एकाएक पढ़ेगा उसके पास रिक्शे वाले को देने के लिए एक भी पैसा नही होगा । यह बात को मैने महसूस किया है आप भी अजमाकर देखिएगा।

गुरूजीसत्यवादी श्रीरामधुन

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