ज्ञान का प्रकाश जाने ।
गुरू स्वयं प्रकाशमान है । उसके चारों तरफ प्रकाश फैल रहा है । इस प्रकाश मन में जो भी शिष्य आएगा वह स्वयं प्रकाशमान हो जाएगा ।यही क्रम चलता रहा तो एक से दिन ऐसा अवश्य आ जाएगा ,जब सारी दुनिया प्रकाशमान हो जाएगी और अंधकार समाप्त हो जाएगा । यहां पर अंधेरे का आशय अज्ञानता से है । प्रकाश होते ही अंधकार समाप्त हो जाता है । पर मन का अंधकार अलग है । हैरानी की बात तो यह है कि अंधकार और प्रकाश दोनों ही अजर अमर है । एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं । जहां अंधकार है वही प्रकाश का स्रोत है । जैसे जैसे अंधकार मिटता जाता है वैसे वैसे प्रकाश प्रकट होने लगता है । जैसे बीच के अंदर वृक्ष है और पत्थर के अंदर मूर्ति है, वैसे ही अंधकार के अंदर उजाला है । गुरु और शिष्य भी इसी प्रकार से है। इसके बाद एक दिन ऐसा आता है जब शिष्य जैसे-जैसे अज्ञानता रूपी अंधकार पर कार्य करता है वैसे वैसे वहां से प्रकाश उगने लगता है । कोयले के घर में हीरा पनपता है ।उसी प्रकार अंधेरे के आधार प्रकाश से उपलब्ध होता है । और असली गुरु आधार पर ही कार्य करता है । गुरु शिष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है । .... गुरु पूर्णिमा का त्यौहार भी इसी गुरु शिष्य अंधेरा उजाला पर आधारित है गुरु पूर्णिमा का महत्व वेदों मां पर बतलाया गया है और उसी समय से आज भी चल रहा है निरंतर चलायमान है । गुरु को शिष्य को गुरु की तलाश है और शिष्हय को गुरू की तलाश है । यह प्रक्रिया धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है इसे जागृत करना परम आवश्यक है ।
गुरू कौन है ?
" वही जो आमजनो को सही रास्ता दिखाऐ ! "
ऐसा कहते हुए गुरुजी सत्यवादी श्री राम धुन ने एक बोध कथा का व्याख्यान कुछ इस प्रकार से किया कि मैंने एक आदमी से पूछा गुरु कौन है ?वह उस समय सेब खा खा रहा था उसने एक सेव देते हुए मुझसे पूछा इसमें कितने बीज हैं बता सकते हो ? जब काटकर मैंने गिन कर बताएं इसमें तीन बीज है । उसने एक बीज लेकर फिर पूछा ।इस बीच में कितने सेव हैं, जरा अच्छे से सोच कर बताओ । मैं सोचने लगा - "एक बीच से एक पेड़ एक पेड़ से अनेक पर अनेक पेड़ से फिर तीन तीन बीज हर बीज में फिर एक बीज एक पेड़ और अनवरत क्रम ।" उस ने मुस्कुराते हुए कहा इसी तरह परमात्मा की कृपा हमें प्राप्त होते रहती है । बस उसकी भक्ति का एक बीज गुरु की सहायता से अपने मन में लगा लेने की जरूरत है । अतः गुरु एक तेज है ,जिनके आते ही सारे संसार का अंधकार समाप्त हो जाते हैं। वह एक मृदंग है ,जिसके बजने से अनहद नाद शुरू हो जाते हैं ।वह एक ज्ञान है जिससे मिलते ही पांचों शरीर एक हो जाते हैं । वह दीक्षा है जो सही मायने जो सही में मिलती है तो भवसागर पार हो जाते हैं । वह नदी है जो हमारे शरीर में निरंतर बहती रहती है , वह कृपा है जो सिर्फ कुछ शिष्यों को विशेष रूप से मिलती है । और कुछ पाकर भी समझना नहीं चाहते है, नहीं पाते हैं । गुरु वो समाधि है जो चिरकाल तक चलते रहती है ,यह तो प्रसाद है जिसके भाग्य में हो उसे कभी कुछ मांगने की जरूरत नहीं पड़ती ।
गुरुजीसत्यवादी श्रीरामधुन ।
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